प्रकृति रूप महद् ब्रह्म योनि में परमब्रह्म श्रीसर्वेश्वर अपने बीज का स्थापन करते हैं।

हाँ लिङ्ग-योनी का अर्थ वही है जो होना चाहिए ।
प्रकृति रूप महद् ब्रह्म योनि में परमब्रह्म श्रीसर्वेश्वर अपने बीज का स्थापन करते हैं। और इस बात को चिह्न अर्थात लिङ्ग रूप में समझाने के लिए लिङ्ग-योनी से अधिक श्रेष्ठ प्रतीक कोई नहीं जो उस निर्विशेष ब्रह्म को सविशेष रूप में दर्शाने के लिए सर्वथा उपयुक्त हो।
  
गीताजी के अध्याय 14 श्लोक 3-4 में भगवान् कहते हैं -
मम योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत॥
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता॥

हे अर्जुन ! मुझ परमेश्वर से नियम्य त्रिगुणात्मिका प्रकृति योनि है अर्थात् सब भूतों की उत्पत्ति का स्थान है। यह प्रकृति देश काल से अनवच्छिन्न है, सब कार्यों से बड़ी है और सब के बढ़ाने का कारण है। इस लिए वह महद् ब्रह्म कही जाती है। इस प्रकृति रूप महद् ब्रह्म योनि में मैं सब भूतों के और ब्रह्मा के भी जन्म के बीज को अर्थात् क्षेत्रज्ञ समूह को धारण कराता हूँ वा स्थापन करता हूँ। चेतन और अचेतन शक्ति का मालिक मैं "बहुस्यां प्रजायेयं" (बहुत होऊँ, सृष्टि करू) ऐसे संकल्प पूर्वक देखता हूँ। तात्पर्य कि प्रलय काल में मुझमें लीन अविद्या, काम, कर्म के संस्कारों से युक्त पराशक्ति वाच्य चेतनपुञ्ज क्षेत्रज्ञ (जीव) को कर्मफल भोग के योग्य सोच कर भोग्यभूत अपराशक्ति अर्थात् क्षेत्र (शरीर) के साथ मैं संयोग कराता हूँ। इसलिए चेतन अचेतन दोनों प्रकृतियों के मेरे द्वारा किये गये संयोगरूप गर्भाधान से लेकर कीट पर्यन्त सब चर अचर का जन्म होता है ॥३॥
        केवल प्रलय के बाद ही पुरुष प्रकृति संयोग से भूतोत्पत्ति मेरी की हुई है सो नहीं पर बादकी कार्यावस्था भी मेरे ही अधीन है, इसी को कहते हैं।
        देव, असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, पितर, मनुष्य, पशु, मृग, पक्षी, सर्पादि सब योनियों में जो शरीर उत्पन्न होते हैं उन मूर्तियों वा शरीरों का, हे अर्जुन ! महद् ब्रह्म योनि है अर्थात् मातृ स्थान है। भाव यह है कि चित संयुक्त महत् आदि विशेषणों वाली प्रकृति उन शरीरों का कारण है और मैं सर्वशक्तिमान् सर्वेश्वर बीजदाता अर्थात् गर्भाधान का कर्ता हूं। भाव यह है कि मैं पिता स्थान में हूँ। तात्पर्य कि कहीं भी जीव की स्वतन्त्रता नहीं है। मैं ही उसके कर्मानुसार उसकी प्रकृति के साथ उसका संयोजक हूँ ॥४॥
(तत्वप्रकाशिका निम्बार्काचार्य श्रीकेशवकाश्मीरीभट्टाचार्य)

तो लिंगोच्छेदियों ! तुम्हारा लिंगोच्छेद कराना इस बात का द्योतक है कि तुम्हारे सॉफ्टवेयर में ये बात कोडिंग के माध्यम से डाली गई है कि तुम प्रत्येक उस लिङ्ग (चिह्न) का उच्छेद करो जो परमब्रह्म का प्रतीक हो।
इसीलिए तुम प्रत्येक सनातनी चिह्न को उच्छेद करते रहे हो और इस धुन में इतने बर्बर हो चुके हो कि इस बात को याद रखने के लिए अपना भौतिक लिंग ही उच्छेद करने लगे हो।

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